गुरुदक्षिणा
एक थे ऋषि । गंगा तट पर
उनका आश्रम था; मीलों लंबा-चौड़ा । बहुत से शिष्य आश्रम में
रहते थे। अनेक गउएँ थी। हरिणों के झुंड आश्रम में चौकड़ी मारते; उछलते-कूदते फिरते थे।
ऋषि के शिष्यों में तीन
प्रमुख शिष्य थे। तीनों ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। बोलचाल में मीठे, स्वभाव में विनम्र, धरती की तरह सहनशील, सागर की तरह गंभीर और सिंह के समान बलशाली ।
वह पुराना ज़माना था।
उस समय आश्रम की गद्दी का अधिकारी होना ऐसा ही था, जैसे
किसी राज्य-सिंहासन पर बैठ जाना । राजा स्वयं ऋषि-मुनियों के आगे सिर झुकाते थे।
ऋषि अपने तीनों शिष्यों
से बहुत प्रसन्न थे। उन्हें वे प्राणों के समान प्रिय थे। मगर एक समस्या थी । ऋषि
काफी बूढ़े थे। वे चाहते थे कि अपने सामने ही तीनों में से किसी एक को आश्रम का
मुखिया बना दें। मगर बनाएँ किसे ? यह समस्या भी छोटी नहीं
थी। तीनों ही एक से एक बढ़कर आज्ञाकारी थे, योग्य थे और
सच्चे अर्थों में मुखिया बनने के अधिकारी थे।
ऋषि सोचते रहे, सोचते रहे। आखिर एक दिन उन्होंने तीनों को अपने पास बुलाया और कहा,
“प्रियवर, तुम तीनों ही मुझे प्रिय हो । मैंने
जी-जान से तुम्हें पढ़ाया-लिखाया और अस-शस्त्र चलाने की शिक्षा दी। मुझे जो-जो
विद्यायें आती थीं तुम्हें सब सिखा दीं। अब केवल गुरु-मंत्र सिखाना बाकी है।
गुरु-मंत्र किसी एक को ही बताऊँगा। जिसे गुरु-मंत्र बताऊँगा, वही मेरी गद्दी का अधिकारी होगा। मैं तुम तीनों की परीक्षा लेना चाहता
हूँ।"
ऋषि की बात सुनकर तीनों ने सिर झुका लिया। वे बोले, “गुरुदेव, ऐसा कौनसा काम है, जो हम आपके लिए नहीं कर सकते। "
ऋषि मुस्कराकर बोले, “यह मैं जानता हूँ। फिर भी परीक्षा परीक्षा है। तुम तीनों तीन अलग-अलग
दिशाओं में जाओ और अपने श्रम से कमाकर मेरे लिए कोई अद्भुत भेंट लाओ। जिसकी भेंट
सबसे अधिक सुंदर और मूल्यवान होगी, वही गद्दी का अधिकारी
होगा। ध्यान रहे, एक वर्ष में वापस आना भी जरूरी है। ”
ऋषि की आज्ञा पाकर
तीनों शिष्य चल पड़े। वे मन ही मन योजनाएँ बनाते चले जा रहे थे। उनमें से एक किसी
राजा के पास जा पहुँचा। दरबार में जाकर उसने नौकरी करने की इच्छा प्रकट की। राजा
तो ऋषि को जानते ही थे। उनका शिष्य कितना योग्य होगा, यह जानते हुए भी उन्हें देर नहीं लगी। राजा ने उसे तुरंत अपने पास रख
लिया।
दूसरा शिष्य समुद्र पर
पहुँचा। वह मछुआरों की बस्ती में गया और उनसे गोता लगाने की विद्या सीखने लगा। कुछ
ही दिनों में वह भी कुशल गोताखोर बन गया ।
तीसरा शिष्य चलता-चलता
एक गाँव में पहुँचा। गाँव उजाड़ था। घर थे, जानवर थे,
बच्चे थे, महिलाएँ थीं, मगर
आदमी एक भी नहीं था। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। मालूम पड़ा कि यहाँ भयंकर अकाल पड़ा
है। कई वर्षों से वर्षा नहीं हुई है। सभी लोग सहायता के लिए राजा के पास गए हैं।
वह भी अकेला क्या करता ? चल पड़ा अपने रास्ते पर । मगर उसे ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा । सामने से
गाँववालों की भीड़ आ रही थी। वे उदास थे और राजा को बुरा-भला कह रहे थे।
यह देखकर ऋषि के शिष्य
को हँसी आ गई। एक राहगीर को हँसता देख गाँववालों को बुरा लगा। वे बोले-“आप हँसे क्यों ?” “हँसी तो मुझे तुम्हारी मूर्खता पर
आई।” “हमारी मूर्खता पर अकाल ने हमें तबाह कर दिया है। भूखों
मरने की नौबत आ गई है। हम सहायता के लिए राजा के पास गए थे। उसने भी हमारी सहायता
नहीं की। आप हमें मूर्ख बता रहे हैं ?”
“हाँ, मैं ठीक ही कह रहा हूँ। तुम सैकड़ों आदमी मिलकर कुछ नहीं कर सकते, तो राजा अकेला क्या कर लेगा ? आदमी सहायता करने के
लिए पैदा हुआ है। सहायता माँगना अपाहिजों का काम है।"
ऋषि के शिष्य की बात
सुनकर सारे लोग सोच में पड़ गए वे बोलें, “भैया,
तुम तो चमत्कारी लगते हो। हम गँवार क्या जानें। चलों, तुम ही हमारे दुखों को दूर कर दो।”
“मैं………........
मैं ही क्यों-तुम स्वयं हाथ उठाओ | कदम बढ़ाओ।
हिम्मत से क्या नहीं हो सकता । उठाओ फाल-कुदाल । कुएँ खोदो । प्यासी धरती की प्यास
बुझाओ।” शिष्य बोला ।
“कुएँ-कुएँ तो
गाँव में हैं, मगर सारे सूखे पड़े हैं। उनमें पानी नहीं,
तो नए कुओ में कहाँ से आ जाएगा ?" - गाँववाले
बोले।
“पानी कभी नहीं
सूखता। बादल न बरसें, न सही। मगर धरती के अंदर बहुत पानी है।
कुओं को और गहरा करो। पानी मिलेगा।”
गाँववालों की समझ में
बात आ गई। दूसरे दिन से गाँव-वाले कुएँ खोदने में जुट गएँ। श्रम के मोती पसीना
बनकर गिरे तो भगवान की आँखें भी भींग गई। कुओं से शीतल जलधारा फूट पड़ी। सूखी धरती
हरियाली की चूनर ओढ़कर फिर से मुसकराने लगी ।
एक गाँव की हालत सुधरी।
फिर दूसरे की सुधरी। श्रम और साहस का काफिला आगे बढ़ा | ऋषि का शिष्य गाँव-गाँव जाता। अकाल से लोगों को लड़ना सिखाता। दूर-दूर तक
उसका नाम फैल गया। सभी उसे आदमी के रूप में 'देवता' समझने लगे। राजा के कानों तक भी यह बात पहुँची।
ऋषि अपने शिष्यों का
इंतजार कर रहे थे। एक दिन पहला शिष्य पहुँचा। उसके साथ हाथी-घोड़े थे। उसने सिर
झुकाकर कहा, "गुरुदेव ! देखिए, राजा ने मेरी योग्यता से प्रसन्न होकर मुझे हाथी-घोड़े भेट में दिए
हैं।" ऋषि मुसकराए और चुप रहे। दूसरे दिन दूसरा शिष्य आया। उसने समुद्र से
बहुत सारे बहुमूल्य मोती इकट्ठे किए थे। ऋषि ने मोतियों की पोटली ले ली और एक ओर
रख दी। कहा कुछ नहीं ।
पूरा वर्ष बीत गया।
तीसरा शिष्य नहीं लौटा। दोनों शिष्यों को लेकर वे उसकी खोज में निकल पड़े।
राजदरबारों में गए, मगर पता नहीं चला। नगरों में
ढूंढा, किसी ने कुछ नहीं बताया। रास्ते में शाही पालकी जा
रही थी। ऋषि को देखकर पालकी रुक गई। राजा नीचे उतरे।। ऋषि को प्रणाम किया। ऋषि ने
राजा से कहा- “राजन्, आपकी प्रजा बहुत
सुखी है। चारों ओर लहलहाती फसल खड़ी है। आप भाग्यवान हैं। "
“नहीं ऋषिवर,
यह प्रताप मेरा नहीं। देवता का है। मेरे राज्य में एक देवता ने जन्म
लिया है। मैं देवता के दर्शन करने जा रहा हूँ। " देवता के पैदा होने की बात
सुनकर ऋषि भी चकराए। वह भी राजा के साथ चल पड़े। एक दिन ढूँढते-ढूँढते किसी गाँव
में देवता मिल गए। धूल से सने पसीने से लथपथ गाँववालों के साथ काम में जुटे थे।
राजा चकित रह गया; वह देवता कैसे हो सकता था ? वह तो एक साधारण किसान
जैसा था। सिर पर न मुकुट था, न गले में स्वर्ण के फूलों की
माला। राजा आगे नहीं बढ़ा। चुपचाप खड़ा देखता रहा। मगर ऋषि चिल्लाए- “बेटा सुबंधु, तुम यहाँ ? मैं
तुम्हें ही ढूँढ़ता फिर रहा था।” कहते मैं हुए ऋषि ने
धूल-धूसरित सुबंधु को बाहों में भर लिया। “क्या मुझे दक्षिणा
देने की बात तुम भूल गए हो ?” ऋषि ने कहा।
"नहीं
गुरुजी, भूल कैसे जाता? मगर अभी काम
अधूरा है। इन सारे लोगों के आँसुओं को पोंछना था। आप ही ने तो बताया था -
"मनुष्य की सेवा से बढ़कर महान् धर्म कोई नहीं है। "
राजा देखते रह गए। ऋषि
की आँखें भी नम हो गई। ऋषि ने भरे गले से कहा- "बेटा, तुमने ठीक ही कहा। तुम्हें सचमुच अब मेरे पास आने की जरुरत नहीं। तुमने
इतने लोगों की भलाई करके मेरी दक्षिणा चुका दी है। जो दूसरों के आँसू लेकर उन्हें
मुस्कराहट दे दे- वह सचमुच देवता है। तुम देवता से कम नहीं हो।” राजा का सिर सुबंधु के आगे झुक गया।
Very nice story 👌
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