Tuesday, October 25, 2022

बचपन में पढ़ी कहानी 13 - बालक चंद्रगुप्त

पाटलिपुत्र के पिपली कानन के मौर्य सेनापति का एक टूटा-फूटा घर था। महापद्मनंद के अत्याचार से मगध काँप रहा था। मौर्य सेनापति के बंदी हो जाने के कारण उनके कुटुंब का जीवन किसी प्रकार कष्ट में बीत रहा था।
एक बालक उसी घर के सामने खेल रहा था। कई लड़के उसकी प्रजा बने थे और वह था राजा। उन्हीं लड़कों में से वह किसी को घोड़ा किसी को हाथी बनाकर चढ़ता और दंड तथा पुरस्कार आदि देने का राजा के समान अभिनय कर रहा था।



उसी ओर से एक ब्राह्मण जा रहे थे। उनका नाम था 'चाणक्य'। वे बड़े बुद्धिमान थे। उन्होंने उस बालक की राजक्रीड़ा बड़े ध्यान से देखी। उनके मन में कौतुहल भी हुआ और कुछ विनोद भी सूझा। उन्होंने ठीक-ठीक ब्राह्मण की तरह उस बालक के पास जाकर याचना की, "राजन, मुझे दूध पीने के लिए गऊ चाहिए।"

बालक ने राजा के समान उदारता का अभिनय करते हुए, सामने चरती हुई गायों को दिखाकर कहा - "इनमें से जितनी इच्छा हो, तुम ले लो। "
ब्राहमण ने हँसकर कहा, “राजन्, ये गायें जिसकी हैं, वह मारने लगे तो ?”
बालक ने गर्व के साथ छाती फुलाकर कहा - " किसका साहस है, जो मेरे शासन को न माने? जब मैं राजा हूँ, तब मेरी आज्ञा अवश्य मानी जाएगी।"
ब्राह्मण ने आश्चर्य से पूछा, "राजन्, आपका शुभ नाम क्या है ?"
तब तक उसकी माँ वहाँ आ गई और ब्राह्मण से हाथ जोड़कर बोली, "महाराज, यह बड़ा ढीठ लड़का है। इसके किसी अपराध पर ध्यान न दीजिएगा। "
चाणक्य ने कहा- "कोई चिन्ता नहीं, यह बड़ा होनहार बालक है। उन्नति के लिए तुम इसे किसी प्रकार राजकुल में भेजा करो। "
उसकी माँ रोने लगी और बोली- “हम लोगों पर राजकोष है और हमारे पति राजा की आज्ञा से बंदी किए गए है। "
ब्राह्मण ने कहा, “बालक का कुछ नहीं बिगड़ेगा। तुम इसे अवश्य राजकुल में ले जाओ। ”
इतना कहकर बालक को आर्शीवाद देकर वह चला गया। उसकी माँ बहुत डरते-डरते एक दिन अपने चंचल और साहसी लड़के को लेकर राज- सभा में पहुँची।
नंद एक निष्ठुर, मूर्ख और निर्दयी राजा था । उसकी राजसभा बड़े-बड़े चापलूस मूर्खो से भरी रहती थी।
पहले राजा लोग एक-दूसरे के बल, बुद्धि और वैभव की परीक्षा लिया करते थे और इसके लिए वे तरह-तरह उपाय रचते थे ।
उसी समय, जव बालक माँ के साथ राज सभा में पहुँचा, किसी राजा के यहाँ से नंद की राज-सभा की बुद्धि का अनुमान करने के लिए, लोहे के पिजड़े में मोम का सिंह बनाकर भेजा गया था और उसके साथ यह कहलाया गया था कि पिंजड़े को खोले बिना सिंह को निकाल लीजिए ।
सारी राज सभा इस पर विचार करने लगी। पर उन चापलूस, मूर्खो को कोई उपाय नहीं सूझा |
अपनी माता के साथ बालक वह लीला देख रहा था। वह भला कब मानने वाला था ? उसने कहा, “मैं निकाल दूँगा।" सब लोग हँस पड़े। बालक की ढिठाई भी कम न थी। राजा नंद को भी आश्चर्य हुआ। नंद ने कहा, "यह कौन है ?"
मालूम हुआ कि राजबंदी मौर्य सेनापति का यह लड़का है। फिर क्या था । नंद की मूर्खता की अग्नि में एक और आहुति पड़ी । क्रुद्ध होकर बोला, “यदि तू इसे न निकाल सकेगा, तो तू भी इस पिंजड़े में बंद कर दिया जाएगा।"
उसकी माता ने देखा कि यह कहाँ से विपत्ति आई । परंतु बालक बिना डरे आगे बढ़ा और पिंजड़े के पास जाकर उसने उसको भली-भाँति देखा। फिर लोहे की छड़ों को गर्म करके उस सिंह को गलाकर पिंजड़े को खाली कर दिया।
सब लोग चकित रह गए। राजा ने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है ?" उसने कहा, "चंद्रगुप्त ।”

राजा ने प्रसन्न होकर उसे तक्षशिला के विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए भेजा। आगे चलकर यही बालक, ब्राहमण 'चाणक्य' की सहायता से, चक्रवर्ती सम्राट "चंद्रगुप्त मौर्य" हुआ।

Sunday, August 7, 2022

Meera BPB - Lauh Maanav (Meera)


Presenting a Rare Bal Pocket Book - 

Publication Series - Meera Bal Pocket Books 
Publisher - Meera Pocket Books, Delhi
Title - Loh Maanav Ka Aatank
Series - Misc. 
Writer - Meera

Monday, July 11, 2022

Star BPB - Aadamkhor Shaitan (Vijay-Hamid) - Amit Khan

Presenting a Rare Bal Pocket Book - 

Publication Series - Star Bal Pocket Books 
Publisher - Star Publications
Title - Aadamkhor Shaitan 
Series - Bal Secret Agent Vijay-Hamid 
Writer - Amit Khan

Sunday, June 5, 2022

Harish BPB - Naqaabposh - Ram Balram - S.C.Bedi

After a long-long time a rare Bal Pocket Book from S.C.Bedi featuring Ram-Balram in Harish Bal Pocket Books.

नकाबपोश (राम-बलराम) - एस.सी.बेदी 

With Love Anupam Agrawal and The ICE Project

राधा (मधुकर सिंह) - बाल भारती (अक्टूबर 1973)


बाल भारती एक बहुत ही बेहतरीन पत्रिका थी, जाने क्यों इसे वो सफलता नहीं मिली जिसकी ये हकदार थी. कुछ दिनों पहले एक बाल-भारती हाथ लगी जिसमें से ये एक 24 पेज की बड़ी सुन्दर कहानी मिली थी. 

इसे आप लोगों के साथ शेयर कर रहा हूँ, बताइयेगा कैसी लगी ...



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Sunday, May 22, 2022

बचपन में पढ़ी कहानी 12 - कौन जीता ?

भारत की अप्रतिम सुन्दरता का एक कारण इसके जन-मन में बसी खूबसूरत कहानियाँ भी हैं. हमारी कहानियों में मनोरंजन के साथ सीख भी होती है. कक्षा दूसरी में पढ़ी हंस और कौवे की एक सुन्दर कहानी अवश्य पढ़ें. 



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बचपन में पढ़ी कहानी 11 - रक्षाबंधन

बचपन में पढ़ी कहानी की श्रृंखला में आज प्रस्तुत है कक्षा दूसरी में पढ़ी एक बेहद सुन्दर कहानी - रक्षाबंधन. रक्षाबंधन का पावन पर्व था परन्तु यमुना दुखी थी क्योंकि उसका कोई भाई न था. यमुना ने निश्चय कर लिया कि इस बार तो वह राखी अपनी भाई को बांधेगी और इस प्यारे से त्यौहार को अवश्य मनाएगी. फिर क्या हुआ...पढ़िए एक सुन्दर-सरल सी कहानी में - 


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Monday, May 16, 2022

बचपन में पढ़ी कहानी 10 - अब्बू खाँ की बकरी

 अब्बू खाँ की बकरी

        





हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है। उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे। उनका नाम था अब्बू खाँ। उन्हें बकरियाँ पालने का बड़ा शौक था। बस एक दो बकरियाँ रखते, दिन भर उन्हें चराते फिरते और शाम को घर में लाकर बाँध देते। उनकी बकरियाँ कभी-न-कभी रस्सी तुड़ाकर भाग जाती थीं।

जब भी कोई बकरी भाग जाती, अब्बू खाँ बेचारे सिर पकड़कर बैठ जाते। हर बार यही सोचते कि अब बकरी नहीं पालूँगा। मगर अकेलापन बुरी चीज है। थोड़े दिन तक तो वे बिना बकरियों के रह लेते, फिर कहीं से एक बकरी खरीद लाते।

इस बार वे जो बकरी खरीद कर लाए थे, वह बहुत सुंदर थी। अब्बू खाँ इस बकरी को बहुत चाहते थे। इसका नाम उन्होंने चाँदनीरखा था। दिन भर उससे बातें करते रहते। अपनी इस नई बकरी चाँदनीके लिए उन्होंने एक नया इंतजाम किया। घर के बाहर एक छोटे खेत में बाड़ लगवाई। चाँदनी को इसी खेत में बाँधते थे। रस्सी इतनी लम्बी रखते वह खूब इधर उधर घूम सके।

लेकिन चाँदनी पहाड़ की खुली हवा को भूल नहीं पाई थी। एक दिन चाँदनी ने पहाड़ की ओर देखा। उसने मन ही मन सोचा, वहाँ की हवा और यहाँ की हवा का क्या मुकाबला । फिर वहाँ उछलना, कूदना, ठोकरें खाना और यहाँ हर वक्त बँधे रहना। मन में इस विचार के आने के बाद, चाँदनी अब पहले जैसी न रही। वह दिन पर दिन दुबली होने लगी। न उसे हरी घास अच्छी लगती और न पानी मजा देता। अजीब-सी दर्द भरी आवाज में "में-मेंचिल्लाती रहती।

अब्बू खाँ समझ गए कि हो-न-हो कोई बात जरूर है। लेकिन उनकी समझ में न आता था कि बात क्या है? एक दिन जब अब्बू खाँ ने दूध दुह लिया; तो चाँदनी उदास भाव से उनकी ओर देखने लेगी। मानो कह रही हो, "बड़े मियाँ, अब मैं तुम्हारे पास रहूँगी तो बीमार हो जाऊँगी। मुझे तो तुम पहाड़ पर जाने दो।"

अब्बू खाँ मानो उसकी बात समझ गए। चिल्लाकर बोले, “या अल्लाह, यह भी जाने को कहती है।वे सोचने लगे, "अगर यह पहाड़ पर चली गई, तो भेड़िया इसे भी खा जाएगा। पहले भी वह कई बकरियाँ खा चुका है।" उन्होंने तय किया कि चाहे जो हो जाए, वे चाँदनी को पहाड़ पर नहीं जाने देंगे। उसे भेड़िए से ज़रूर बचाएँगे।

अब्बू खां ने चाँदनी को एक कोठरी में बंद कर दिया, ऊपर से साँकल चढ़ा दी। मगर वे कोठरी की खिड़की बंद करना भूल गए। इधर उन्होंने कुंडी चढ़ाई और उधर चाँदनी उचककर खिड़की से बाहर।

चाँदनी पहाड़ पर पहुँची, तो उसकी खुशी का क्या पूछना। पहाड़ पर पेड़ उसने पहले भी देखे थे, लेकिन आज उनका रंग और ही था। चाँदनी कभी इधर उछलती, कभी उधर । यहाँ-कूदी, वहाँ फाँदी, कभी चट्टान पर है, तो कभी खड्डे में। इधर जरा फिसली फिर सँभली। दोपहर तक वह इतनी उछली-कूदी कि शायद सारी उम्र में इतनी न उछली-कूदी होगी।

शाम का वक्त हुआ। ठंडी हवा चलने लगी। चाँदनी पहाड़ से अब्बू खाँ के घर की ओर देख रही थी। धीरे-धीरे अब्बू खाँ का घर और काँटेवाला घेरा रात के अँधेरे में छिप रहा था।

रात का अँधेरा गहरा था। पहाड़ में एक तरफ आवाज आई "खूँ-खूँ"। यह आवाज सुनकर चाँदनी को भेड़िए का ख्याल आया। दिन भर में एक बार भी उसका ध्यान उधर न गया था। पहाड़ के नीचे सीटी और बिगुल की आवाज आई। वह बेचारे अब्बू खाँ थे। वे कोशिश कर रहे थे कि सीटी और बिगुल की आवाज सुनकर चाँदनी शायद लौट आए। उधर से दुश्मन भेड़िए की आवाज आ रही थी।

चाँदनी के मन में आया कि लौट चले। लेकिन उसे खूँटा याद आया। रस्सी याद आई। काँटों का घेरा याद आया। उसने सोचा कि इससे तो मौत अच्छी। आखिर सीटी और बिगुल की आवाज बंद हो गई। पीछे से पत्तों की खड़खड़ाहट सुनाई दी। चाँदनी ने मुड़कर देखा तो दो कान दिखाई दिए, सीधे और खड़े हुए और दो आँखें जो अँधेरे में चमक रही थीं। भेड़िया पहुँच गया था।

भेड़िया जमीन पर बैठा था। उसकी नजर बेचारी बकरी पर जमी हुई थी। उसे जल्दी नहीं थी। वह जानता था कि बकरी कहीं नहीं जा सकती। वह अपनी लाल-लाल जीभ अपने नीले-नीले ओठों पर फेर रहा था। पहले तो चाँदनी ने सोचा कि क्यों लहूँ। भेड़िया बहुत ताकतवर है। उसके पास नुकीले बड़े-बड़े दाँत हैं। जीत तो उसकी ही होगी। लेकिन फिर उसने सोचा कि यह तो कायरता होगी। उसने सिर झुकाया। सींग आगे को किए और पैंतरा बदला। भेड़िए से लड़ गई। लड़ती रही। कोई यह न समझे कि चाँदनी भेड़िए की ताकत को नहीं जानती थी। वह खूब समझती थी कि बकरियाँ भेड़ियों को नहीं मार सकती। लेकिन मुकाबला जरूरी है। बिना लड़े हार मानना कायरता है।

चाँदनी ने भेड़िए पर एक के बाद एक हमला किया। भेड़िया भी चकरा गया। लेकिन भेड़ियां, भेड़िया था। सारी रात गुजर गई। धीरे-धीरे चाँदनी की ताकत ने जवाब दें दिया, फिर भी उसने दुगना जोर लगाकर हमला किया। लेकिन भेड़िए के सामने उसका कोई बस नहीं चला। वह बेदम होकर जमीन पर गिर पड़ी। पास ही पेड़ पर बैठी चिड़ियाँ इस लड़ाई को देख रहीं थीं। उनमें बहस हो रही थी कि कौन जीता। बहुत-सी चिड़ियों ने कहा, 'भेड़िया जीता।' पर एक बूढ़ी-सी चिड़िया बोली, ‘चाँदनी जीती।'


With Love Anupam Agrawal and The ICE Project

Sunday, May 15, 2022

बचपन में पढ़ी कहानी 09 - सूरज और चाँद की दुश्मनी


सूरज दिन में और चाँद रात में ही क्यों निकलते हैं. क्यों दोनों साथ-साथ नहीं आते. लोक-कल्पनाओं में एक सुन्दर कहानी.


सूरज और चाँद की दुश्मनी


एक बुढ़िया के दो बच्चे थे-लड़की का नाम चाँद था और लड़के का नाम सूरज। ये लोग बहुत ही गरीबी में दिन काट रहे थे। उन्हीं दिनों बस्तर में अकाल पड़ा ओर लोग दाने-दाने को तरसने लगे। बेचारी बुढ़िया भी अपने दोनों बच्चों के साथ भूख की शिकार हुई ।

उन्हीं दिनों गाँव में माँझी के घर भोज हुआ । बूढ़ी माँ ने अपने दोनों बच्चों को वहाँ भेजा और दोना हाथ में देते हुए कहा मेरे लिए भी दोने में लेकर आना।

 

बढ़िया खाना सामने देख सूरज तो माँ को भूल गया और जल्दी खाने लगा, पर चाँद नहीं भूली । उसने चुपचाप दोने में खाना रखकर उसे चादर से ढक लिया।

भूख से व्याकुल बूढ़ी माँ दरवाजे पर बैठी थी। सूरज के हाथ में खाली दोना देखकर वह रो पड़ी और बेटे को शाप दे बैठी- जा, तू दुनियाँ में सदा जलता रहेगा और दूसरों को भी जलाएगा।"

तभी पीछे से चाँद चादर में दोना छुपाए भागी-भागी आई। बूढ़ी माँ खुशी से गद्गद् हो गई और उसने बेटी को दुआ दी - दुनियाँ में तू हमेशा ठंडक फैलाएगी।

बाद में दोनों भाई-बहिन बड़े हो गए और उनके अपने-अपने बच्चे भी हुए। एक दिन बातों-बातों में दोनों ने शर्त लगाई, “देखें, कौन जल्दी अपने बच्चों को खाता है ?” सूरज गट-गट करके अपने बच्चों को निगलने लगा, पर चाँद अपने बच्चों को गाल में छुपा-छुपाकर रखने लगी ।

जब सूरज ने अपने सारे बच्चों को खा लिया, तब चाँद ने गाल में छुपाए अपने बच्चों को बाहर निकाल दिया और भाई से बोली, “धिक्कार है भाई,  मै तो तेरी परीक्षा ले रही थी। तूने सच में अपने नन्हे-मुन्ने बच्चों को खा लिया ? तुझ-सा पापी दूसरा नहीं होगा। जा, आज से तू मेरी परछाई न देखना, न मैं तेरी परछाई देखूँगी ।

तभी से सूरज अकेला उगता है और चाँद अपने ढेर सारे बच्चों की फौज लिए आती है, जो आसमान पर आँख-मिचौनी खेलते रहते हैं। तब से दोनों ने एक-दूसरे की शक्ल भी नहीं देखी।

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Saturday, May 14, 2022

बचपन में पढ़ी कहानी 08 - राजा भोज और बुढ़िया

राजा भोज, माघ कवि और एक अनजान मगर विद्वती बुढ़िया की छोटी सी कहानी. कुछ बिंदु - पुरातनपंथी विचार-धाराओं से प्रभावित लग सकते हैं तथा आधुनिक समय में आपत्ति हो सकती है. परन्तु इस कहानी को उस समयावधि के अनुसार पढ़ें क्योंकि कहानी ज्ञानवर्धक है. 

राजा भोज और बुढ़िया

शाम हो चली थी । चोरों की तरह अँधेरा छिपता हुआ आ रहा था । पशु-पक्षी अपने घरों को लौट रहे थे । राजा भोज और माघ कवि यह सब देखकर बहुत खुश हो रहे थे । लेकिन वे अब बहुत थक गए थे। उन्हें प्यास बहुत लगी थी ।  वे एक झरने पर पानी पोने गए । पानी पीकर चले तो अंधेरा हो चुका था। रास्ता समझ में नहीं आता था ।

 

काफी देर तक भटकने के बाद उन्हें दूर एक दिया जलता हुआ दिखा। दोनों उधर ही गये। वहाँ पहुँच कर देखा कि एक झोपड़ी है उसमें एक बुढ़िया बैठी थी। राजा भोज और माघ कवि ने उससे राम-राम की ।

 

राजा भोज ने पूछा कि ये रास्ता कहाँ जायेगा ?

बुढ़िया ने कहा- यह रास्ता तो कहीं नहीं जाता । मैं तो इसको कई सालों से यहीं देख रही हूँ। हाँ,  इस पर चलने वाले ही जाते हैं,  पर तुम लोग कौन हो?

राजा भोज ने कहा -हम तो राही है. रास्ता भूल गये हैं।

यह सुनकर बुढ़िया हँसी । वह बोली- तुम राही कैसे ! राही तो दो ही है-एक सूरज, दूसरा चन्द्रमा। सूरज दिन भर और चन्द्रमा रात भर चलता है ।

यह सुनकर राजा भोज चकरा गये। वह अभी चुप ही थे कि माघ कवि ने कहा- बुढ़िया, हम तुम्हारे मेहमान हैं ।  हमें, रास्ता बता दो।

बुरिया ने कहा- जानती हूँ कि मेहमान वही है जो आए और चला जाए। लेकिन मेहमान तो दुनियाँ में दो ही हैं - एक धन और दूसरी आदमी को उम्र ।

राजा भोज ने कहा- हम राजा हैं। हमें रास्ता बता दो ?

बुढ़िया बोली- राजा भी दो ही हैं । एक इंद्र और दूसरे यमराज,  बोलो तुम उनमें से कौन हो ?

अब माघ पंडित ने हाथ जोड़ लिए। बोले – हम तो गरीब हैं। तुम कृपा कर रास्ता बता दो ।

बुढ़िया ने कहा – तुम गरीब कैसे ? गरीब तो दो हैं। एक बकरी का बच्चा और दूसरी कन्या । तुमको में कैसे गरीब मान लूँ ? राजा भोज ने कहा- अच्छा तो हम हारे हुए हैं ।

बुढ़िया बोली- तुम कैसे हारे हुए हो । हारे तो दो ही हैं। एक कर्जदार और दूसरा लड़की का बाप ।

अब राजा भोज और माघ पंडित चुप हो गये। तब बुढ़िया हँसी और बोली – मैं जानती हूं कि तुम राजा भोज हो और ये कवि माघ पंडित। तुम्हारी परीक्षा मैंने ले ली। अब इस रास्ते से सीधे चले जाओ। धारा नगरी पहुंच जाओगे ।


With Love Anupam Agrawal and The ICE Project

बचपन में पढ़ी कहानी 07 - गुरुदक्षिणा

एक बेहद शानदार कहानी - एक गुरु और उनके तीन शिष्यों की. पढ़ें और गर्व करें अपनी संस्कृति और गुरुकुल परंपरा पर...

गुरुदक्षिणा

एक थे ऋषि । गंगा तट पर उनका आश्रम था; मीलों लंबा-चौड़ा । बहुत से शिष्य आश्रम में रहते थे। अनेक गउएँ थी। हरिणों के झुंड आश्रम में चौकड़ी मारते; उछलते-कूदते फिरते थे।

ऋषि के शिष्यों में तीन प्रमुख शिष्य थे। तीनों ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। बोलचाल में मीठे, स्वभाव में विनम्र, धरती की तरह सहनशील, सागर की तरह गंभीर और सिंह के समान बलशाली ।

वह पुराना ज़माना था। उस समय आश्रम की गद्दी का अधिकारी होना ऐसा ही था, जैसे किसी राज्य-सिंहासन पर बैठ जाना । राजा स्वयं ऋषि-मुनियों के आगे सिर झुकाते थे।

ऋषि अपने तीनों शिष्यों से बहुत प्रसन्न थे। उन्हें वे प्राणों के समान प्रिय थे। मगर एक समस्या थी । ऋषि काफी बूढ़े थे। वे चाहते थे कि अपने सामने ही तीनों में से किसी एक को आश्रम का मुखिया बना दें। मगर बनाएँ किसे ? यह समस्या भी छोटी नहीं थी। तीनों ही एक से एक बढ़कर आज्ञाकारी थे, योग्य थे और सच्चे अर्थों में मुखिया बनने के अधिकारी थे।

ऋषि सोचते रहे, सोचते रहे। आखिर एक दिन उन्होंने तीनों को अपने पास बुलाया और कहा, “प्रियवर, तुम तीनों ही मुझे प्रिय हो । मैंने जी-जान से तुम्हें पढ़ाया-लिखाया और अस-शस्त्र चलाने की शिक्षा दी। मुझे जो-जो विद्यायें आती थीं तुम्हें सब सिखा दीं। अब केवल गुरु-मंत्र सिखाना बाकी है। गुरु-मंत्र किसी एक को ही बताऊँगा। जिसे गुरु-मंत्र बताऊँगा, वही मेरी गद्दी का अधिकारी होगा। मैं तुम तीनों की परीक्षा लेना चाहता हूँ।"


ऋषि की बात सुनकर तीनों ने सिर झुका लिया। वे बोले, “गुरुदेव, ऐसा कौनसा काम है, जो हम आपके लिए नहीं कर सकते। "

ऋषि मुस्कराकर बोले, “यह मैं जानता हूँ। फिर भी परीक्षा परीक्षा है। तुम तीनों तीन अलग-अलग दिशाओं में जाओ और अपने श्रम से कमाकर मेरे लिए कोई अद्भुत भेंट लाओ। जिसकी भेंट सबसे अधिक सुंदर और मूल्यवान होगी, वही गद्दी का अधिकारी होगा। ध्यान रहे, एक वर्ष में वापस आना भी जरूरी है।

ऋषि की आज्ञा पाकर तीनों शिष्य चल पड़े। वे मन ही मन योजनाएँ बनाते चले जा रहे थे। उनमें से एक किसी राजा के पास जा पहुँचा। दरबार में जाकर उसने नौकरी करने की इच्छा प्रकट की। राजा तो ऋषि को जानते ही थे। उनका शिष्य कितना योग्य होगा, यह जानते हुए भी उन्हें देर नहीं लगी। राजा ने उसे तुरंत अपने पास रख लिया।

दूसरा शिष्य समुद्र पर पहुँचा। वह मछुआरों की बस्ती में गया और उनसे गोता लगाने की विद्या सीखने लगा। कुछ ही दिनों में वह भी कुशल गोताखोर बन गया ।

तीसरा शिष्य चलता-चलता एक गाँव में पहुँचा। गाँव उजाड़ था। घर थे, जानवर थे, बच्चे थे, महिलाएँ थीं, मगर आदमी एक भी नहीं था। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। मालूम पड़ा कि यहाँ भयंकर अकाल पड़ा है। कई वर्षों से वर्षा नहीं हुई है। सभी लोग सहायता के लिए राजा के पास गए हैं।

वह भी अकेला क्या करता ? चल पड़ा अपने रास्ते पर । मगर उसे ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा । सामने से गाँववालों की भीड़ आ रही थी। वे उदास थे और राजा को बुरा-भला कह रहे थे।

यह देखकर ऋषि के शिष्य को हँसी आ गई। एक राहगीर को हँसता देख गाँववालों को बुरा लगा। वे बोले-आप हँसे क्यों ?” “हँसी तो मुझे तुम्हारी मूर्खता पर आई।” “हमारी मूर्खता पर अकाल ने हमें तबाह कर दिया है। भूखों मरने की नौबत आ गई है। हम सहायता के लिए राजा के पास गए थे। उसने भी हमारी सहायता नहीं की। आप हमें मूर्ख बता रहे हैं ?”

हाँ, मैं ठीक ही कह रहा हूँ। तुम सैकड़ों आदमी मिलकर कुछ नहीं कर सकते, तो राजा अकेला क्या कर लेगा ? आदमी सहायता करने के लिए पैदा हुआ है। सहायता माँगना अपाहिजों का काम है।"

ऋषि के शिष्य की बात सुनकर सारे लोग सोच में पड़ गए वे बोलें, “भैया, तुम तो चमत्कारी लगते हो। हम गँवार क्या जानें। चलों, तुम ही हमारे दुखों को दूर कर दो।

मैं………........ मैं ही क्यों-तुम स्वयं हाथ उठाओ | कदम बढ़ाओ। हिम्मत से क्या नहीं हो सकता । उठाओ फाल-कुदाल । कुएँ खोदो । प्यासी धरती की प्यास बुझाओ।शिष्य बोला ।

कुएँ-कुएँ तो गाँव में हैं, मगर सारे सूखे पड़े हैं। उनमें पानी नहीं, तो नए कुओ में कहाँ से आ जाएगा ?" - गाँववाले बोले।

पानी कभी नहीं सूखता। बादल न बरसें, न सही। मगर धरती के अंदर बहुत पानी है। कुओं को और गहरा करो। पानी मिलेगा।

गाँववालों की समझ में बात आ गई। दूसरे दिन से गाँव-वाले कुएँ खोदने में जुट गएँ। श्रम के मोती पसीना बनकर गिरे तो भगवान की आँखें भी भींग गई। कुओं से शीतल जलधारा फूट पड़ी। सूखी धरती हरियाली की चूनर ओढ़कर फिर से मुसकराने लगी ।

एक गाँव की हालत सुधरी। फिर दूसरे की सुधरी। श्रम और साहस का काफिला आगे बढ़ा | ऋषि का शिष्य गाँव-गाँव जाता। अकाल से लोगों को लड़ना सिखाता। दूर-दूर तक उसका नाम फैल गया। सभी उसे आदमी के रूप में 'देवता' समझने लगे। राजा के कानों तक भी यह बात पहुँची।

ऋषि अपने शिष्यों का इंतजार कर रहे थे। एक दिन पहला शिष्य पहुँचा। उसके साथ हाथी-घोड़े थे। उसने सिर झुकाकर कहा, "गुरुदेव ! देखिए, राजा ने मेरी योग्यता से प्रसन्न होकर मुझे हाथी-घोड़े भेट में दिए हैं।" ऋषि मुसकराए और चुप रहे। दूसरे दिन दूसरा शिष्य आया। उसने समुद्र से बहुत सारे बहुमूल्य मोती इकट्ठे किए थे। ऋषि ने मोतियों की पोटली ले ली और एक ओर रख दी। कहा कुछ नहीं ।

पूरा वर्ष बीत गया। तीसरा शिष्य नहीं लौटा। दोनों शिष्यों को लेकर वे उसकी खोज में निकल पड़े। राजदरबारों में गए, मगर पता नहीं चला। नगरों में ढूंढा, किसी ने कुछ नहीं बताया। रास्ते में शाही पालकी जा रही थी। ऋषि को देखकर पालकी रुक गई। राजा नीचे उतरे।। ऋषि को प्रणाम किया। ऋषि ने राजा से कहा- राजन्, आपकी प्रजा बहुत सुखी है। चारों ओर लहलहाती फसल खड़ी है। आप भाग्यवान हैं। "

नहीं ऋषिवर, यह प्रताप मेरा नहीं। देवता का है। मेरे राज्य में एक देवता ने जन्म लिया है। मैं देवता के दर्शन करने जा रहा हूँ। " देवता के पैदा होने की बात सुनकर ऋषि भी चकराए। वह भी राजा के साथ चल पड़े। एक दिन ढूँढते-ढूँढते किसी गाँव में देवता मिल गए। धूल से सने पसीने से लथपथ गाँववालों के साथ काम में जुटे थे।

राजा चकित रह गया; वह देवता कैसे हो सकता था ? वह तो एक साधारण किसान जैसा था। सिर पर न मुकुट था, न गले में स्वर्ण के फूलों की माला। राजा आगे नहीं बढ़ा। चुपचाप खड़ा देखता रहा। मगर ऋषि चिल्लाए- बेटा सुबंधु, तुम यहाँ ? मैं तुम्हें ही ढूँढ़ता फिर रहा था।कहते मैं हुए ऋषि ने धूल-धूसरित सुबंधु को बाहों में भर लिया। क्या मुझे दक्षिणा देने की बात तुम भूल गए हो ?” ऋषि ने कहा।

"नहीं गुरुजी, भूल कैसे जाता? मगर अभी काम अधूरा है। इन सारे लोगों के आँसुओं को पोंछना था। आप ही ने तो बताया था - "मनुष्य की सेवा से बढ़कर महान् धर्म कोई नहीं है। "

राजा देखते रह गए। ऋषि की आँखें भी नम हो गई। ऋषि ने भरे गले से कहा- "बेटा, तुमने ठीक ही कहा। तुम्हें सचमुच अब मेरे पास आने की जरुरत नहीं। तुमने इतने लोगों की भलाई करके मेरी दक्षिणा चुका दी है। जो दूसरों के आँसू लेकर उन्हें मुस्कराहट दे दे- वह सचमुच देवता है। तुम देवता से कम नहीं हो।राजा का सिर सुबंधु के आगे झुक गया।


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बचपन में पढ़ी कहानी 06 - चुरकी - मुरकी


 चुरकी- मुरकी

एक गाँव में चुरकी और मुरकी नाम की दो बहनें रहती थीं। उनका एक भाई था, जो दूसरे गाँव में रहता था। चुरकी बहुत नम्र और सेवाभाव रखनेवाली थी, जबकि मुरकी बड़ी घमंडिन थी ।

एक दिन चुरकी का मन अपने भाई से मिलने का हुआ । उसने अपने बच्चे मुरकी की देखभाल में रख दिए और भाई के गाँव की ओर निकल पड़ी ।

चलते-चलते उसे एक बेर का पेड़ मिला । बेर के पेड़ ने चुरकी को पुकारा पूछा; “कहाँ जा रही हो ?” चुरकी बोली, “भैया के पास।पेड़ बोला, “मेरा एक काम कर दो। जहाँ तक मेरी छाया पड़ती है, उतनी जगह को झाड़-बुहारकर लीप- पोंत दो। जब तुम लौटोगी तो मैं मीठे-मीठे बेर वहाँ टपका दूँगा। तुम अपने बच्चों के लिए ले जाना।चुरकी ने यह काम कर दिया और आगे बढ़ी।

चलते-चलते उसे एक गोठान मिला जिसमें सुरही गायें थी। एक गाय ने चुरकी से पूछा, “कहाँ जा रही हो ?” चुरकी बोली, "भैया के पास। गाय ने कहा, "हमारे इस गोठान को साफ कर दो। लीप पोत दो। वापिस आते समय एक दोहनी लेती आना। उसे हम दूध से भर देंगी। वह तुम अपने बच्चों के लिए ले जाना।चुरकी ने चुटकी बजाते यह कर दिया और आगे बढ़ी ।

आगे चल कर उसे एक मिट्टी का टीला मिला। उसमें से आवाज आई, "क्यों बहन ! कहाँ जा रही हो ?” चुरकी को बड़ा अचरज हुआ कि यह किसकी आवाज है। वह बोली, "मैं भैया के पास जा रही हूँ, पर तुम कौन हो ? यहाँ तो कोई भी दिखाई नहीं देता।" टीला बोला, मैं मिट्टी का टीला बोल रहा हूँ। तुम मेरे आसपास की जमीन साफ-सुथरी कर दो। वापसी में मैं तुम्हारी मजदूरी चुकता कर दूंगा।चुरकी ने फौरन सब कर दिया और आगे बढ़ी।

अब वह अपने भैया के गाँव पहुँच गई। भैया उसे गाँव की मेंड पर खेत में ही मिल गया। वह उससे बड़े प्रेम से मिला। उसने सुख-दुख की बातें की। अपने साथ लाया हुआ कलेवा उसे खिलाया। पर जब भाभी से मिलने घर पहुँची, तो उसका व्यवहार उसके साथ रूखा रहा पर खैर! चुरकी ने दूसरे दिन भाभी- भैया से विदा ली। उसने भाभी से एक दोहनी माँग ली थी। भैया ने उससे चने का साग तोड़ने के लिए कहा। उसने तोड़ लिया। उसी को लेकर वह घर की ओर चल पड़ी।

वापस आते हुए सबसे पहले उसे मिट्टी का टीला मिला, जिस पर रूपयों का ढेर लगा था। यह उसकी मजदूरी थी। उसने रुपए बटोर कर अपनी टोकरी में रख लिए और चने के साग से ढक दिए। थोड़ी देर बाद गोठान आ गया। वहाँ गाय ने उसकी दोहनी दूध से भर दी। गायों को प्रणाम कर वह आगे चल पड़ी।

फिर उसे बेर का वृक्ष मिला। पेड़ के नीचे पके, मीठे बेरों का ढेर लगा था। कुछ बेर उसने अपने आँचल में बाँधे और पेड़ को शीश नवाकर आगे बढ़ी।

घर पहुँचने पर मुरकी ने उसके पास जब इतनी चीजें देखीं तो उसने समझा कि ये सब भैया ने उसे बिदाई के रूप में दी होंगी। उसे लालच हो आया। उसने सोचा कि उसे भी भैया के यहाँ जाना चाहिए। दूसरे दिन वह भी अपने भाई के घर के लिए निकल पड़ी।

चलते-चलते उसे भी पहले बेर का वृक्ष मिला। पेड़ ने उससे वही बात कही, जो चुरकी से कही थी, परंतु मुरकी घमंडिन थी। उसने साफ मना कर दिया और आगे बढ़ गई।

आगे बढ़ने पर उसे गोठान मिला। वहाँ की गायों ने भी उससे सफाई कर देने के लिए कहा। वह उनपर चिढ़ गई। मना करके वह आगे बढ़ गई। आगे उसे मिट्टी का टीला मिला। टीले ने भी उससे वही बात कही, जो चुरकी से कही थी। मुरकी चिढ़ गई। उसने कहा, "क्या मैं गरीब हूँ. जो मजदूरी लूँगी ? मुझे मेरे भाई से बहुत रुपए मिल जाएँगे।" इस प्रकार सबका अपमान करके वह आगे बढ़ी।

गाँव की मेंड पर खेत में ही भाई से उसकी भेंट हो गई। भाई प्रेम से मिला। फिर घर पहुँचकर भाभी से मिली। भाभी का व्यवहार भी ठीक ही रहा। दूसरे दिन उसने भैया-भाभी से बिदा माँगी। भाभी ने बिदाई कर दी पर भेंट में कुछ नहीं दिया। खेत में भाई से मिली। भाई ने चने का साग तोड़ने को कहा । थोड़ा-सा साग लेकर वह चल पड़ी। वह मन ही मन बहुत दुखी हुई कि भैया-भाभी ने चुरकी को तो कितनी सारी विदाई दी थी, मुझे कुछ नहीं दिया।

लौटते समय रास्ते में पुनः मिट्टी का टीला पड़ा। जैसे ही वह टीले के पास पहुंची तो वहाँ तीन-चार काले सर्प निकले और मुरकी की ओर बढ़े। घबराकर वह भागी। भागते-भागते वह गोठान तक पहुँची। वहाँ आराम करने के लिए थोड़ी देर रुकी तो वहाँ की सुरही गाएँ उसे मारने के लिए दौड़ीं। बेचारी मुरकी वहाँ से भी जान बचाकर भागी। किसी तरह गिरते-पड़ते वह बेर के पेड़ के पास पहुँची तो वहाँ बेर के काँटों का जाल बिछा हुआ था। काँटों से मुरकी के हाथ पैर छिद गए। उसमें उलझकर उसके वस्त्र फट गए।

वह इस तरह घायल होकर थकी माँदी किसी तरह चुरकी के घर तक पहुँची। चुरकी को उसकी हालत देखकर बहुत कष्ट हुआ। उसने सहानुभूति के साथ उसकी दयनीय दशा का कारण पूछा। मुरकी ने भैया-भाभी के पक्षपात और उनकी कंजूसी का दुखड़ा रोया। तब चुरकी ने उसे बताया कि भैया ने तो उसे कुछ नहीं दिया था। उसने यह भी पूछा, “रास्ते में तुमसे किसी ने कुछ करने को कहा था क्या ?” इसपर मुरकी ने उसे सारी बातें बताई। चुरकी सब कुछ समझ गई। वह बोली, “बहन ! तुमको बहुत घमंड था। इसलिए यह हालत हुई। संसार में घमंड किसी का भी नहीं टिकता। घमंड ही आदमी को नीचे गिराता है। ".

 

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Friday, May 13, 2022

बचपन में पढ़ी कवितायें - संग्रह 01

जब हम छोटे थे तो छोटी-छोटी कविताओं का अपना आनंद था - सारा दिन उन्हें दोहराना और खुश होना.

तो जरा देखिये आपको कितनी कवितायें आज भी याद हैं. 

मेरी पहली कक्षा की कविताओं का संग्रह ...

1. अँधा और लंगड़ा 
2. दिन निकला 

3. मैं गाँधी बन जाऊं 


4. बादल आया 


5. झूल भैया झूल 

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Thursday, May 12, 2022

बचपन में पढ़ी कहानी 05 - आरुणि की गुरू-भक्ति

कुछ कहानियों ऐसी होती हैं कि एक बार पढ़ ली तो पूरी जिन्दगी उसकी याद रह जाती है. कक्षा 3 में पढ़ी आरूणि की गुरू-भक्ति कुछ ऐसी ही कहानी है जो भारत के गौरवशाली गुरुकुल प्रथा को प्रकाशित करती है और हमारी सनातन परम्पराओं की श्रेष्ठता को सिद्ध करती है. 

अगर आपने नहीं पढ़ी है तो आप भी पढ़िए और जिन्होंने पहले पढ़ी है वे अपने बचपन की ओर लौट चलें - 




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Monday, May 9, 2022

बचपन में पढ़ी कहानी 04 - अपना काम आप करो

ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के ऊपर आधारित यह कहानी मुझे सदैव प्रिय रही है. आशा है कक्षा दूसरी में पढ़ी मेरी प्यारी हिंदी की पुस्तक की यह छोटी सी कहानी आपको भी उतनी ही पसंद आएगी. 



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स्टार कॉमिक्स सीरीज SCS-2 ईदगाह (मुंशी प्रेमचंद)

हम लोगों में से शायद ही कोई ऐसा हो जिसने ईदगाह की कहानी न पढ़ी हो. पाँच साल के नन्हे बालक हामिद और उसकी दादी अमीना की इस छोटी सी लेकिन ह्रदयस्पर्शी कहानी का हिंदी साहित्य में एक अतुलनीय स्थान है. 

स्टार कॉमिक्स के प्रकाशकों ने हिंदी साहित्य के उपन्यास और कहानी सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी की चुनिन्दा कहानियों को चित्रकथा के रूप में प्रस्तुत किया था. ये हमारा दुर्भाग्य था कि यह प्रकाशन वांछित सफलता नहीं पा सका, नहीं तो हमें ऐसी ही अनेक कहानियाँ चित्रकथा के रूप में पढ़ने को मिल जाती.

खैर, इस चित्रकथा में ईदगाह के अलावा लॉटरी नामक कहानी भी है. 

दोनों को पढ़ें और आनंद लें. 

Sunday, May 8, 2022

बचपन में पढ़ी कहानी 03 - सच्चा सुख

बचपन में पढ़ी कहानियों की श्रृंखला में आज की तीसरी कहानी - सच्चा सुख 

संतोष से बढ़कर कुछ नहीं.
जो संतोषी है वही सुखी है. 





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बचपन में पढ़ी कहानी 02 - लाल बुझक्कड़ की सूझ

आज सुबह से ही मन बचपन की यादों में खोया सा हुआ था और आप सभी मित्रों के कमेंट्स फेसबुक में पढ़कर मन और बेचैन हो उठा. सो आज का दिन बचपन की उन्हीं यादों के साथ - जब पढ़ाई बहुत ही सहज थी और माता-पिता की ओर से हमें बचपन पूरी तरह जीने की आज़ादी भी थी. बस मस्ती और धमाल, सारा दिन घर से बाहर और दोस्तों का साथ.... काश! वो दिन कुछ पल के लिए भी वापस जी सकूं तो. 

बचपन के दिनों में वापस जाना तो संभव नहीं है, पर कुछ यादें दुबारा मन में जिन्दा कर उस अनुभूति का एक छोटा सा हिस्सा भी याद कर लेना दिल को सुकून तो दे ही जाता है. तो बचपन में पढ़ी कहानी की श्रृंखला में आज पेश है - कक्षा 2 का प्यारा सा पाठ - लालबुझक्कड़ की सूझ 


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बचपन में पढ़ी कहानी 01 - पाँच बातें



क्या कभी आप सभी न वही अनुभव किया है जो मैं करता हूँ? जब मैं प्राथमिक शाला में पढ़ता था, तब की पाठ्यपुस्तकों में बहुत ही रोचक और शिक्षाप्रद कहानियाँ हुआ करती थी जो आज भी स्मृति में शेष हैं. आज जब अपने बच्चों की पुस्तकें देखता हूँ तो कहीं भी ह्रदय को स्पर्श करती कहानियाँ नजर नहीं आती. 
ऐसी ही एक कहानी थी – पाँच बातें. हरपाल सिंह और बूढ़े बाबा की लाजवाब कहानी. आशा है आपको पसंद आएगी.   

पाँच बातें (कहानी)

शिक्षित और युवा व्यक्ति के पास कोई काम का न होना सचमुच दुखद है. हरपाल सिंह के साथ भी कुछ ऐसा ही था.गांव में थोड़ी बहुत जमीन थी पर उससे परिवार का गुजारा होना बड़ा कठिन था.वह अपनी बूढ़ी माँ,पत्नी-बच्चों के लिए आवश्यक वस्तुएँ नहीं जुटा पाता था.इसलिए आज उसने विचार कर लिया था कि वह किसी राजा के पास जाकर कोई चाकरी ही कर लेगा.
उसे अपने परिवार से बहुत प्यार था. पर उनकी बेहतरी के लिए अपने मन को कठोर करके आज वह किसी को बिना बताए चांदनी रात में चुपचाप घर से निकल पड़ा.गांव में सन्नाटा पसरा हुआ था.कुछ कुत्तों के भौंकने का स्वर सुनाई दे रहा था. रात के अंधकार में तारे टिमटिमा रहे थे.
गांव से थोड़ी ही दूर एक बूढ़ा व्यक्ति अपनी झोपड़ी में रहता था.लोग उसे पागल कहा करते थे.पर वह जब भी कोई बात कहता,ज्ञान की बात ही कहता.हरपाल ने सोचा कि क्यों न उस बूढ़े बाबा से ज्ञान की कुछ बातें सुनता चलूँ.परदेस जा रहा हूं,न जाने कौन सा संकट आन पड़े. सो वह उस बूढ़े की कुटिया में पहुंच गया और अपनी बात कही. बूढ़े ने कहा बेटा परदेस जा रहे हो तो मेरी ये पांच बातें सदैव याद रखना-
1.जो तुम्हारी सेवा करे तुम ही उसकी सेवा करो.
2.किसी को दिल दुखाने वाली बात मत करना हर काम इमानदारी से करो.
3. हर काम इमानदारी से करो.
4.बिना योग्यता के दूसरों से बराबरी का दावा मत करो.
और
5.जहां भी ज्ञान की दो बातें मिले ध्यान से सुनो.
हरपाल सिंह ने उस वृद्ध की पांचों बातें गाठ बांधली और निकल पड़ा एक बड़े से नगर की ओर....|
प्रातः काल वह एक बड़े से नगर में पहुंचा.महाराज की दरबार पहुँचकर उसने प्रधान सेवक से विनय की. प्रधान सेवक ने उसकी दिन था और सरलता से प्रभावित होकर उसने भृत्य का कार्य मिल गया.हरपालसिंह ने प्रधान सेवक का बहुत आभार माना.
एक बार राजा साजो-सामान सहित किसी यात्रा पर निकला.रास्ता लंबा था, गर्मी के दिन थे.यात्रा दल के पीने योग्य पानी समाप्त हो गया.राजा और प्रजा दोनों व्यास से व्याकुल हो उठे. राजा ने प्रधान सेवक को आदेश दिया कि-अविलंब मेरे और सबके लिए पेयजल का प्रबंध करो अन्यथा तुम बुरे परिणाम के लिए तैयार रहो.
भयभीत प्रधान सेवक अपने साथियों के साथ वन में जल की तलाश करने निकल पड़ा पर,उनका सारा प्रयास व्यर्थ रहा. वह यात्रा दल के पास निराश होकर वापस लौटा.
हरपाल सिंह भी निकट ही खड़ा था.उनसे उसकी यह दशा देखी न गई. क्योंकि उसी के कारण ही तो आज वह राज दरबार की सेवा कर रहा है.

उसी बूढ़े की पहली बात याद आई-जो भी तुम्हारी मदद करें तुम भी उसकी मदद करो.
उसने प्रधान सेवक से प्रश्न किया प्रधान जी क्या आसपास कहीं पर भी जल का पता नहीं चला?

प्रधान ने कहा-हाँ हरपाल.सभी ताल नदी सूखे हुए हैं.जल का नामोनिशान तक नहीं है हां एक बावड़ी है लेकिन....|"
लेकिन क्या?-हरपाल सिंह ने पूछा.
"आसपास के लोगों ने बताया कि वहां एक भूत रहता है.आज तक जो भी उस कुएं में उतरा वो कभी वापस नहीं लौट सका.इसलिए हम में से कोई भी वहां जाने की हिम्मत न कर सका." प्रधान सेवक ने अपनी बात पूरी की.
हरपाल सिंह ने कहा-"मित्र तुमने मेरी सहायता की है तुम्हारा मुझ पर बड़ा एहसान है इसलिए मैं अवश्य जल लेने जाऊंगा." सभी ने हरपाल सिंह को रोकना चाहा, पर हरपाल सिंह अपने दोनों हाथों में मटका लेकर निडर होकर चल पड़ा,उसी भूतिया बावड़ी की ओर.
हरपाल सिंह चलते-चलते बावड़ी के पास पहुंचा. बड़े-बड़े और ऊंचे पेड़ों के बीच घिरा हुआ वह कुआँ सचमुच डरावना लग रहा था.ऐसा प्रतीत होता था की वर्षों से यहां कोई नहीं आया है.
कुएँ से नीचे तक जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थी,और नीचे बिल्कुल अंधेरा था. एक बार तो हरपाल सिंह का हृदय भी काँप गया. पर वह हिम्मत करके धीमी कदमों से कुएँ से जल लेने उतरा.

बावड़ी के जल स्तर तक पहुंच कर और झुककर उसने दोनों अपने मटके पानी से भर लिए.दोनों हाथों में जल से भरे घड़े लिए वह जैसे ही ऊपर सीढ़ियां चढ़ने को तैयार हुआ. उससे ठीक सामने एक भयानक सा आदमी खड़ा था. बिल्कुल काला कलूटा बाल बड़े बड़े और बिखरे हुए.कमर से ऊपर का भाग नग्न था.और उसने किसी नर कंकाल को अपने सीने से लगाए रखा था.

हरपाल सिंह स्तंभित रह गया.
उस डरावने आदमी ने हरपाल से प्रश्न किया ओ नौजवान!मेरी पत्नी के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है?

हरपाल कुछ कह नहीं जा रहा था कि उसे वृद्धि की दूसरी बात याद आई किसी के दिल दुखाने वाली बात मत करो. उसने जवाब दिया-''ऐसी सुंदर स्त्री तो मैंने जीवन में कभी नहीं देखा."
हरपाल सिंह का उत्तर सुनकर वह व्यक्ति बहुत प्रसन्न हुआ उसने कहा-" नौजवान मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूं. मैं अपनी पत्नी से इतना प्रेम करता था कि आज तक उसे लेकर यहां वहां फिर रहा हूं.आज तक जो भी इस कुएँ में आया उन सब से मैंने यही प्रश्न किया.पर उन्होंने इसे हड्डी का ढांचा कह दिया इसलिए मैंने उन सब को मार डाला. पर तुमने मेरी पत्नी की प्रशंसा करके मुझे खुश कर दिया है.बोलो नौजवान तुम क्या चाहते हो?"
हरपाल सिंह ने कहा-"मान्यवर आसपास के लोगों को आपके भय के कारण पानी नहीं मिल पाता है. यदि आप मुझसे सचमुच प्रसन्न हैं तो कृपा करके आप इस बावड़ी को छोड़कर चले जाइए."
उस आदमी ने कहा बिल्कुल ऐसा ही होगा और तुरंत वह सदा सदा के लिए उस कुएँ को छोड़कर चला गया.
हरपाल सिंह जब मटके में पानी लेकर वापस  पहुंचा तो सबके खुशी का ठिकाना न रहा. राजा प्रजा सब को भरपूर पानी मिला.
राजा ने हरपाल सिंह से प्रसन्न होकर उसके पद और वेतन में वृद्धि कर दी.
अब हरपाल सिंह को राज्य का खजांची बना दिया गया. यानी कि  राजकोष के देखरेख का जिम्मा अब उसके ही हाथों में था. अपना काम करते हुए उसे बूढ़े की तीसरी बात हमेशा याद आती थी कि-हर काम इमानदारी से करो.
हरपालसिंह की ईमानदारी से काम करने और पाई-पाई के हिसाब रखने की वजह से भ्रष्ट कर्मचारी उससे नाराज  रहने लगे क्योंकि अब उनके अतिरिक्त आय का रास्ता बंद हो गया.
प्रधानमंत्री ने हरपालसिंह को लालच देकर कहा कि यदि तुम हमसे मिलकर रहोगे तो मैं और हमारे साथी मिलकर तुम्हें एक प्रतिष्ठित पद दिलवा देंगे.जिससे तुम्हारे सम्मान और यश में वृद्धि होगी. 
पर हरपाल ने बूढ़े की चौथी बात का स्मरण किया-बिना योग्यता के किसी से बराबरी का दावा मत करो. उसने प्रधानमंत्री का अनुचित प्रस्ताव ठुकरा दिया.
इससे नाराज होकर दूसरे ही दिन सुबह चापलूस मंत्रियों ने राजा के पास जाकर शिकायत की,कि हरपालसिंह अपने कार्य  में हेरा-फेरी करता है.और मना करने पर उसने हमें खरी-खोटी सुनाई और उसने राजपरिवार को भी अपमानजनक शब्द कहे हैं.
राजा यह सुनकर आगबबूला हो गया.उसने कहा-"हरपालसिंह का यह दुस्साहस?कि हमारे ही टुकड़ों पर पलकर हमें ही अपशब्द कहे.हम जब तक हरपालसिंह का कटा सिर नहीं देख लें,हमारे परिवार का कोई भी सदस्य पानी तक नहीं पिएगा."
राजा ने तुरंत एक सैनिक को बुलाकर उससे कहा-"सैनिक हमारे नगर से कुछ दूर के गाँव में एक भवन निर्माण का कार्य चल रहा है.आज एक व्यक्ति तुमसे आकर यह पूछेगा कि काम कितना बाकी है? यह सुनते ही तुम उसकी गर्दन काटकर मेरे पास ले आना."
राजा की आज्ञा पाकर वह सैनिक चला गया.
कुछ देर बाद राजा ने हरपाल से को अपने पास बुला कर कहा-"हरपाल सिंह पास के एक गांव में बहुत बड़ा भवन बन रहा है तुम शीघ्र जाओ और वहां के कारीगर से पूछकर आओ कि काम कितना बाकी है?
"जो आज्ञा महाराज!"
हरपाल सिंह एक घोड़े पर सवार होकर अनजाने में अपने ही मृत्यु की ओर बढ़ चला.
हरपाल सिंह अश्व पर सवार हो कुछ विचार करते हुए यात्रा में मग्न था.
उसने देखा कि रास्ते पर ही एक बड़ा सा आयोजन हो रहा था जिसमें ज्ञान की चर्चा हो रही थी. हरपाल आगे बढ़ जाना चाहता था पर उसे बूढ़े की पांचवी बात याद आई-जहां भी ज्ञान की दो बातें मिले ध्यान से सुनो. वह घोड़े को एक वृक्ष से बांधकर कथा सुनने में रम  गया. चर्चा जब ज्ञान की हो तो समय कैसे बीत जाता है,पता ही नहीं चलता. हरपाल सिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ.कैसे दिन डूबने को आई,पता ही न चला.
इधर राज परिवार के सदस्य भूख प्यास से तड़पने लगे. क्योंकि उन्होंने हरपाल सिंह के मरने के बाद ही अन्य जल ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी. राजा का बेटा भूख-प्यास सहन नहीं कर सका.वह जानना चाहता था कि हरपालसिंह का सिर अब तक क्यों नहीं पहुंचा?
वास्तविकता जानने के लिए राजकुमार एक साधारण पुरुष का वेश बनाकर उसी सैनिक के पास जा पहुंचा जिसे राजा ने हरपाल सिंह का सिर काटने की आज्ञा दी थी.
वहां जाकर उसने सैनिक से पूछा-" काम अब तक पूरा क्यों नहीं हुआ?
वह सैनिक वेश बदले हुए राजकुमार को नहीं पहचान पाया. उसने समझा कि यही वो व्यक्ति है जिसका सिर काटने के लिए मुझे महराज ने यहाँ  भेजा है.
उसने झट राजकुमार का सिर काट दिया.
यदि हरपालसिंह बूढ़े की पांच बातें नहीं मानता तो क्या होता?

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Saturday, May 7, 2022

स्टार कॉमिक्स सीरीज SCS-2 पंच परमेश्वर (मुंशी प्रेमचंद)

जीवन की व्यस्तताओं के बीच से कुछ समय निकालकर पिछले महीने से कॉमिक्स की दुनिया में फिर से सक्रिय हुआ हूँ. विगत माह मैंने लगातार ICE प्रोजेक्ट पर कार्य किया था जो कि Indian Comics Encylopedia नामक मेरा एक स्वप्न प्रोजेक्ट है. एक माह में 12 प्रकाशन श्रृंखलाओं पर जानकारी के बाद अब इस ब्लॉग को सक्रिय बनाना अगला उद्देश्य है. 

इस उद्देश्य की शुरुआत मैं सार्थक पुस्तकों से करना चाहता हूँ, अतः आज प्रस्तुत है मुंशी प्रेमचंद जी की अमर कृति पंच परमेश्वर का शानदार चित्रकथा रूपांतरण - स्टार कॉमिक्स सीरीज में...

जल्द ही मेरे पास उपलब्ध दो और चित्रकथाएं आपके सामने होंगी इस सीरीज की - 
बेटों वाली विधवा 
पूस की रात 

आज के लिए पंच परमेश्वर पढ़िए और अपने बचपन में पढ़ी कहानी का चित्रकथा के रूप में आनंद लें...


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