Sunday, May 22, 2022
बचपन में पढ़ी कहानी 12 - कौन जीता ?
बचपन में पढ़ी कहानी 11 - रक्षाबंधन
Monday, May 16, 2022
बचपन में पढ़ी कहानी 10 - अब्बू खाँ की बकरी
जब भी कोई बकरी भाग
जाती,
अब्बू खाँ बेचारे सिर पकड़कर बैठ जाते। हर बार यही सोचते कि अब बकरी
नहीं पालूँगा। मगर अकेलापन बुरी चीज है। थोड़े दिन तक तो वे बिना बकरियों के रह
लेते, फिर कहीं से एक बकरी खरीद लाते।
इस बार वे जो बकरी खरीद
कर लाए थे, वह बहुत सुंदर थी। अब्बू खाँ इस बकरी को
बहुत चाहते थे। इसका नाम उन्होंने “चाँदनी” रखा था। दिन भर उससे बातें करते रहते। अपनी इस नई बकरी “चाँदनी” के लिए उन्होंने एक नया इंतजाम किया। घर के
बाहर एक छोटे खेत में बाड़ लगवाई। चाँदनी को इसी खेत में बाँधते थे। रस्सी इतनी
लम्बी रखते वह खूब इधर उधर घूम सके।
लेकिन चाँदनी पहाड़ की
खुली हवा को भूल नहीं पाई थी। एक दिन चाँदनी ने पहाड़ की ओर देखा। उसने मन ही मन
सोचा,
वहाँ की हवा और यहाँ की हवा का क्या मुकाबला । फिर वहाँ उछलना,
कूदना, ठोकरें खाना और यहाँ हर वक्त बँधे
रहना। मन में इस विचार के आने के बाद, चाँदनी अब पहले जैसी न
रही। वह दिन पर दिन दुबली होने लगी। न उसे हरी घास अच्छी लगती और न पानी मजा देता।
अजीब-सी दर्द भरी आवाज में "में-में” चिल्लाती रहती।
अब्बू खाँ समझ गए कि
हो-न-हो कोई बात जरूर है। लेकिन उनकी समझ में न आता था कि बात क्या है? एक दिन जब अब्बू खाँ ने दूध दुह लिया; तो चाँदनी
उदास भाव से उनकी ओर देखने लेगी। मानो कह रही हो, "बड़े
मियाँ, अब मैं तुम्हारे पास रहूँगी तो बीमार हो जाऊँगी। मुझे
तो तुम पहाड़ पर जाने दो।"
अब्बू खाँ मानो उसकी बात समझ गए। चिल्लाकर बोले, “या अल्लाह, यह भी जाने को कहती है।” वे सोचने लगे, "अगर यह पहाड़ पर चली गई, तो भेड़िया इसे भी खा जाएगा। पहले भी वह कई बकरियाँ खा चुका है।" उन्होंने तय किया कि चाहे जो हो जाए, वे चाँदनी को पहाड़ पर नहीं जाने देंगे। उसे भेड़िए से ज़रूर बचाएँगे।
अब्बू खां ने चाँदनी को
एक कोठरी में बंद कर दिया, ऊपर से साँकल चढ़ा दी। मगर वे
कोठरी की खिड़की बंद करना भूल गए। इधर उन्होंने कुंडी चढ़ाई और उधर चाँदनी उचककर
खिड़की से बाहर।
चाँदनी पहाड़ पर पहुँची, तो उसकी खुशी का क्या पूछना। पहाड़ पर पेड़ उसने पहले भी देखे थे, लेकिन आज उनका रंग और ही था। चाँदनी कभी इधर उछलती, कभी
उधर । यहाँ-कूदी, वहाँ फाँदी, कभी
चट्टान पर है, तो कभी खड्डे में। इधर जरा फिसली फिर सँभली।
दोपहर तक वह इतनी उछली-कूदी कि शायद सारी उम्र में इतनी न उछली-कूदी होगी।
शाम का वक्त हुआ। ठंडी
हवा चलने लगी। चाँदनी पहाड़ से अब्बू खाँ के घर की ओर देख रही थी। धीरे-धीरे अब्बू
खाँ का घर और काँटेवाला घेरा रात के अँधेरे में छिप रहा था।
रात का अँधेरा गहरा था।
पहाड़ में एक तरफ आवाज आई "खूँ-खूँ"। यह आवाज सुनकर चाँदनी को भेड़िए का
ख्याल आया। दिन भर में एक बार भी उसका ध्यान उधर न गया था। पहाड़ के नीचे सीटी और
बिगुल की आवाज आई। वह बेचारे अब्बू खाँ थे। वे कोशिश कर रहे थे कि सीटी और बिगुल
की आवाज सुनकर चाँदनी शायद लौट आए। उधर से दुश्मन भेड़िए की आवाज आ रही थी।
चाँदनी के मन में आया
कि लौट चले। लेकिन उसे खूँटा याद आया। रस्सी याद आई। काँटों का घेरा याद आया। उसने
सोचा कि इससे तो मौत अच्छी। आखिर सीटी और बिगुल की आवाज बंद हो गई। पीछे से पत्तों
की खड़खड़ाहट सुनाई दी। चाँदनी ने मुड़कर देखा तो दो कान दिखाई दिए, सीधे और खड़े हुए और दो आँखें जो अँधेरे में चमक रही थीं। भेड़िया पहुँच
गया था।
भेड़िया जमीन पर बैठा
था। उसकी नजर बेचारी बकरी पर जमी हुई थी। उसे जल्दी नहीं थी। वह जानता था कि बकरी
कहीं नहीं जा सकती। वह अपनी लाल-लाल जीभ अपने नीले-नीले ओठों पर फेर रहा था। पहले
तो चाँदनी ने सोचा कि क्यों लहूँ। भेड़िया बहुत ताकतवर है। उसके पास नुकीले
बड़े-बड़े दाँत हैं। जीत तो उसकी ही होगी। लेकिन फिर उसने सोचा कि यह तो कायरता
होगी। उसने सिर झुकाया। सींग आगे को किए और पैंतरा बदला। भेड़िए से लड़ गई। लड़ती
रही। कोई यह न समझे कि चाँदनी भेड़िए की ताकत को नहीं जानती थी। वह खूब समझती थी
कि बकरियाँ भेड़ियों को नहीं मार सकती। लेकिन मुकाबला जरूरी है। बिना लड़े हार
मानना कायरता है।
चाँदनी ने भेड़िए पर एक के बाद एक हमला किया। भेड़िया भी चकरा गया। लेकिन भेड़ियां, भेड़िया था। सारी रात गुजर गई। धीरे-धीरे चाँदनी की ताकत ने जवाब दें दिया, फिर भी उसने दुगना जोर लगाकर हमला किया। लेकिन भेड़िए के सामने उसका कोई बस नहीं चला। वह बेदम होकर जमीन पर गिर पड़ी। पास ही पेड़ पर बैठी चिड़ियाँ इस लड़ाई को देख रहीं थीं। उनमें बहस हो रही थी कि कौन जीता। बहुत-सी चिड़ियों ने कहा, 'भेड़िया जीता।' पर एक बूढ़ी-सी चिड़िया बोली, ‘चाँदनी जीती।'
Sunday, May 15, 2022
बचपन में पढ़ी कहानी 09 - सूरज और चाँद की दुश्मनी
सूरज और चाँद की दुश्मनी
एक
बुढ़िया के दो बच्चे थे-लड़की का नाम चाँद था और लड़के का नाम सूरज। ये लोग बहुत
ही गरीबी में दिन काट रहे थे। उन्हीं दिनों बस्तर में अकाल पड़ा ओर लोग दाने-दाने
को तरसने लगे। बेचारी बुढ़िया भी अपने दोनों बच्चों के साथ भूख की शिकार हुई ।
उन्हीं
दिनों गाँव में माँझी के घर भोज हुआ । बूढ़ी माँ ने अपने दोनों बच्चों को वहाँ
भेजा और दोना हाथ में देते हुए कहा “मेरे लिए भी दोने में लेकर आना।”
बढ़िया
खाना सामने देख सूरज तो माँ को भूल गया और जल्दी खाने लगा, पर चाँद नहीं भूली ।
उसने चुपचाप दोने में खाना रखकर उसे चादर से ढक लिया।
भूख
से व्याकुल बूढ़ी माँ दरवाजे पर बैठी थी। सूरज के हाथ में खाली दोना देखकर वह रो
पड़ी और बेटे को शाप दे बैठी- “जा, तू दुनियाँ में सदा जलता रहेगा और दूसरों को भी
जलाएगा।"
तभी
पीछे से चाँद चादर में दोना छुपाए भागी-भागी आई। बूढ़ी माँ खुशी से गद्गद् हो गई
और उसने बेटी को दुआ दी - “ दुनियाँ में तू हमेशा ठंडक फैलाएगी।”
बाद
में दोनों भाई-बहिन बड़े हो गए और उनके अपने-अपने बच्चे भी हुए। एक दिन
बातों-बातों में दोनों ने शर्त लगाई, “देखें, कौन जल्दी अपने बच्चों को खाता है ?” सूरज
गट-गट करके अपने बच्चों को निगलने लगा, पर चाँद अपने बच्चों को गाल में छुपा-छुपाकर
रखने लगी ।
जब
सूरज ने अपने सारे बच्चों को खा लिया, तब चाँद ने गाल में छुपाए अपने बच्चों को बाहर
निकाल दिया और भाई से बोली, “धिक्कार है भाई,
मै तो तेरी परीक्षा ले रही थी। तूने सच में अपने
नन्हे-मुन्ने बच्चों को खा लिया ? तुझ-सा पापी दूसरा नहीं होगा। जा, आज से तू मेरी परछाई न
देखना, न
मैं तेरी परछाई देखूँगी । ”
तभी
से सूरज अकेला उगता है और चाँद अपने ढेर सारे बच्चों की फौज लिए आती है, जो आसमान पर आँख-मिचौनी
खेलते रहते हैं। तब से दोनों ने एक-दूसरे की शक्ल भी नहीं देखी।
Saturday, May 14, 2022
बचपन में पढ़ी कहानी 08 - राजा भोज और बुढ़िया
शाम हो चली थी । चोरों की तरह अँधेरा छिपता हुआ आ रहा था । पशु-पक्षी अपने घरों को लौट रहे थे । राजा भोज और माघ कवि यह सब देखकर बहुत खुश हो रहे थे । लेकिन वे अब बहुत थक गए थे। उन्हें प्यास बहुत लगी थी । वे एक झरने पर पानी पोने गए । पानी पीकर चले तो अंधेरा हो चुका था। रास्ता समझ में नहीं आता था ।
काफी देर तक भटकने के बाद उन्हें दूर एक दिया जलता हुआ दिखा। दोनों
उधर ही गये। वहाँ पहुँच कर देखा कि एक झोपड़ी है उसमें एक बुढ़िया बैठी थी। राजा
भोज और माघ कवि ने उससे राम-राम की ।
राजा भोज ने पूछा कि ये रास्ता कहाँ जायेगा ?
बुढ़िया ने कहा- यह रास्ता तो कहीं नहीं जाता । मैं तो इसको कई सालों
से यहीं देख रही हूँ। हाँ, इस
पर चलने वाले ही जाते हैं, पर
तुम लोग कौन हो?
राजा भोज ने कहा -हम तो राही है. रास्ता भूल गये हैं।
यह सुनकर बुढ़िया हँसी । वह बोली- तुम राही कैसे ! राही तो दो ही
है-एक सूरज, दूसरा चन्द्रमा। सूरज दिन भर और चन्द्रमा रात भर चलता है ।
यह सुनकर राजा भोज चकरा गये। वह अभी चुप ही थे कि माघ कवि ने कहा-
बुढ़िया, हम तुम्हारे मेहमान हैं । हमें, रास्ता बता दो।
बुरिया ने कहा- जानती हूँ कि मेहमान वही है जो आए और चला जाए। लेकिन
मेहमान तो दुनियाँ में दो ही हैं - एक धन और दूसरी आदमी को उम्र ।
राजा भोज ने कहा- हम राजा हैं। हमें रास्ता बता दो ?
बुढ़िया बोली-
राजा भी दो ही हैं । एक इंद्र और दूसरे यमराज, बोलो तुम उनमें से कौन हो ?
अब माघ पंडित ने हाथ जोड़ लिए। बोले – हम तो गरीब हैं। तुम कृपा कर
रास्ता बता दो ।
बुढ़िया ने कहा – तुम गरीब कैसे ? गरीब तो दो हैं।
एक बकरी का बच्चा और दूसरी कन्या । तुमको में कैसे गरीब मान लूँ ? राजा भोज ने कहा- अच्छा तो हम हारे हुए हैं ।
बुढ़िया बोली- तुम कैसे हारे हुए हो । हारे तो दो ही हैं। एक कर्जदार
और दूसरा लड़की का बाप ।
अब राजा भोज और माघ पंडित चुप हो गये। तब बुढ़िया हँसी और बोली – मैं
जानती हूं कि तुम राजा भोज हो और ये कवि माघ पंडित। तुम्हारी परीक्षा मैंने ले ली।
अब इस रास्ते से सीधे चले जाओ। धारा नगरी पहुंच जाओगे ।
बचपन में पढ़ी कहानी 07 - गुरुदक्षिणा
गुरुदक्षिणा
एक थे ऋषि । गंगा तट पर
उनका आश्रम था; मीलों लंबा-चौड़ा । बहुत से शिष्य आश्रम में
रहते थे। अनेक गउएँ थी। हरिणों के झुंड आश्रम में चौकड़ी मारते; उछलते-कूदते फिरते थे।
ऋषि के शिष्यों में तीन
प्रमुख शिष्य थे। तीनों ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण थे। बोलचाल में मीठे, स्वभाव में विनम्र, धरती की तरह सहनशील, सागर की तरह गंभीर और सिंह के समान बलशाली ।
वह पुराना ज़माना था।
उस समय आश्रम की गद्दी का अधिकारी होना ऐसा ही था, जैसे
किसी राज्य-सिंहासन पर बैठ जाना । राजा स्वयं ऋषि-मुनियों के आगे सिर झुकाते थे।
ऋषि अपने तीनों शिष्यों
से बहुत प्रसन्न थे। उन्हें वे प्राणों के समान प्रिय थे। मगर एक समस्या थी । ऋषि
काफी बूढ़े थे। वे चाहते थे कि अपने सामने ही तीनों में से किसी एक को आश्रम का
मुखिया बना दें। मगर बनाएँ किसे ? यह समस्या भी छोटी नहीं
थी। तीनों ही एक से एक बढ़कर आज्ञाकारी थे, योग्य थे और
सच्चे अर्थों में मुखिया बनने के अधिकारी थे।
ऋषि सोचते रहे, सोचते रहे। आखिर एक दिन उन्होंने तीनों को अपने पास बुलाया और कहा,
“प्रियवर, तुम तीनों ही मुझे प्रिय हो । मैंने
जी-जान से तुम्हें पढ़ाया-लिखाया और अस-शस्त्र चलाने की शिक्षा दी। मुझे जो-जो
विद्यायें आती थीं तुम्हें सब सिखा दीं। अब केवल गुरु-मंत्र सिखाना बाकी है।
गुरु-मंत्र किसी एक को ही बताऊँगा। जिसे गुरु-मंत्र बताऊँगा, वही मेरी गद्दी का अधिकारी होगा। मैं तुम तीनों की परीक्षा लेना चाहता
हूँ।"
ऋषि की बात सुनकर तीनों ने सिर झुका लिया। वे बोले, “गुरुदेव, ऐसा कौनसा काम है, जो हम आपके लिए नहीं कर सकते। "
ऋषि मुस्कराकर बोले, “यह मैं जानता हूँ। फिर भी परीक्षा परीक्षा है। तुम तीनों तीन अलग-अलग
दिशाओं में जाओ और अपने श्रम से कमाकर मेरे लिए कोई अद्भुत भेंट लाओ। जिसकी भेंट
सबसे अधिक सुंदर और मूल्यवान होगी, वही गद्दी का अधिकारी
होगा। ध्यान रहे, एक वर्ष में वापस आना भी जरूरी है। ”
ऋषि की आज्ञा पाकर
तीनों शिष्य चल पड़े। वे मन ही मन योजनाएँ बनाते चले जा रहे थे। उनमें से एक किसी
राजा के पास जा पहुँचा। दरबार में जाकर उसने नौकरी करने की इच्छा प्रकट की। राजा
तो ऋषि को जानते ही थे। उनका शिष्य कितना योग्य होगा, यह जानते हुए भी उन्हें देर नहीं लगी। राजा ने उसे तुरंत अपने पास रख
लिया।
दूसरा शिष्य समुद्र पर
पहुँचा। वह मछुआरों की बस्ती में गया और उनसे गोता लगाने की विद्या सीखने लगा। कुछ
ही दिनों में वह भी कुशल गोताखोर बन गया ।
तीसरा शिष्य चलता-चलता
एक गाँव में पहुँचा। गाँव उजाड़ था। घर थे, जानवर थे,
बच्चे थे, महिलाएँ थीं, मगर
आदमी एक भी नहीं था। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। मालूम पड़ा कि यहाँ भयंकर अकाल पड़ा
है। कई वर्षों से वर्षा नहीं हुई है। सभी लोग सहायता के लिए राजा के पास गए हैं।
वह भी अकेला क्या करता ? चल पड़ा अपने रास्ते पर । मगर उसे ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ा । सामने से
गाँववालों की भीड़ आ रही थी। वे उदास थे और राजा को बुरा-भला कह रहे थे।
यह देखकर ऋषि के शिष्य
को हँसी आ गई। एक राहगीर को हँसता देख गाँववालों को बुरा लगा। वे बोले-“आप हँसे क्यों ?” “हँसी तो मुझे तुम्हारी मूर्खता पर
आई।” “हमारी मूर्खता पर अकाल ने हमें तबाह कर दिया है। भूखों
मरने की नौबत आ गई है। हम सहायता के लिए राजा के पास गए थे। उसने भी हमारी सहायता
नहीं की। आप हमें मूर्ख बता रहे हैं ?”
“हाँ, मैं ठीक ही कह रहा हूँ। तुम सैकड़ों आदमी मिलकर कुछ नहीं कर सकते, तो राजा अकेला क्या कर लेगा ? आदमी सहायता करने के
लिए पैदा हुआ है। सहायता माँगना अपाहिजों का काम है।"
ऋषि के शिष्य की बात
सुनकर सारे लोग सोच में पड़ गए वे बोलें, “भैया,
तुम तो चमत्कारी लगते हो। हम गँवार क्या जानें। चलों, तुम ही हमारे दुखों को दूर कर दो।”
“मैं………........
मैं ही क्यों-तुम स्वयं हाथ उठाओ | कदम बढ़ाओ।
हिम्मत से क्या नहीं हो सकता । उठाओ फाल-कुदाल । कुएँ खोदो । प्यासी धरती की प्यास
बुझाओ।” शिष्य बोला ।
“कुएँ-कुएँ तो
गाँव में हैं, मगर सारे सूखे पड़े हैं। उनमें पानी नहीं,
तो नए कुओ में कहाँ से आ जाएगा ?" - गाँववाले
बोले।
“पानी कभी नहीं
सूखता। बादल न बरसें, न सही। मगर धरती के अंदर बहुत पानी है।
कुओं को और गहरा करो। पानी मिलेगा।”
गाँववालों की समझ में
बात आ गई। दूसरे दिन से गाँव-वाले कुएँ खोदने में जुट गएँ। श्रम के मोती पसीना
बनकर गिरे तो भगवान की आँखें भी भींग गई। कुओं से शीतल जलधारा फूट पड़ी। सूखी धरती
हरियाली की चूनर ओढ़कर फिर से मुसकराने लगी ।
एक गाँव की हालत सुधरी।
फिर दूसरे की सुधरी। श्रम और साहस का काफिला आगे बढ़ा | ऋषि का शिष्य गाँव-गाँव जाता। अकाल से लोगों को लड़ना सिखाता। दूर-दूर तक
उसका नाम फैल गया। सभी उसे आदमी के रूप में 'देवता' समझने लगे। राजा के कानों तक भी यह बात पहुँची।
ऋषि अपने शिष्यों का
इंतजार कर रहे थे। एक दिन पहला शिष्य पहुँचा। उसके साथ हाथी-घोड़े थे। उसने सिर
झुकाकर कहा, "गुरुदेव ! देखिए, राजा ने मेरी योग्यता से प्रसन्न होकर मुझे हाथी-घोड़े भेट में दिए
हैं।" ऋषि मुसकराए और चुप रहे। दूसरे दिन दूसरा शिष्य आया। उसने समुद्र से
बहुत सारे बहुमूल्य मोती इकट्ठे किए थे। ऋषि ने मोतियों की पोटली ले ली और एक ओर
रख दी। कहा कुछ नहीं ।
पूरा वर्ष बीत गया।
तीसरा शिष्य नहीं लौटा। दोनों शिष्यों को लेकर वे उसकी खोज में निकल पड़े।
राजदरबारों में गए, मगर पता नहीं चला। नगरों में
ढूंढा, किसी ने कुछ नहीं बताया। रास्ते में शाही पालकी जा
रही थी। ऋषि को देखकर पालकी रुक गई। राजा नीचे उतरे।। ऋषि को प्रणाम किया। ऋषि ने
राजा से कहा- “राजन्, आपकी प्रजा बहुत
सुखी है। चारों ओर लहलहाती फसल खड़ी है। आप भाग्यवान हैं। "
“नहीं ऋषिवर,
यह प्रताप मेरा नहीं। देवता का है। मेरे राज्य में एक देवता ने जन्म
लिया है। मैं देवता के दर्शन करने जा रहा हूँ। " देवता के पैदा होने की बात
सुनकर ऋषि भी चकराए। वह भी राजा के साथ चल पड़े। एक दिन ढूँढते-ढूँढते किसी गाँव
में देवता मिल गए। धूल से सने पसीने से लथपथ गाँववालों के साथ काम में जुटे थे।
राजा चकित रह गया; वह देवता कैसे हो सकता था ? वह तो एक साधारण किसान
जैसा था। सिर पर न मुकुट था, न गले में स्वर्ण के फूलों की
माला। राजा आगे नहीं बढ़ा। चुपचाप खड़ा देखता रहा। मगर ऋषि चिल्लाए- “बेटा सुबंधु, तुम यहाँ ? मैं
तुम्हें ही ढूँढ़ता फिर रहा था।” कहते मैं हुए ऋषि ने
धूल-धूसरित सुबंधु को बाहों में भर लिया। “क्या मुझे दक्षिणा
देने की बात तुम भूल गए हो ?” ऋषि ने कहा।
"नहीं
गुरुजी, भूल कैसे जाता? मगर अभी काम
अधूरा है। इन सारे लोगों के आँसुओं को पोंछना था। आप ही ने तो बताया था -
"मनुष्य की सेवा से बढ़कर महान् धर्म कोई नहीं है। "
राजा देखते रह गए। ऋषि
की आँखें भी नम हो गई। ऋषि ने भरे गले से कहा- "बेटा, तुमने ठीक ही कहा। तुम्हें सचमुच अब मेरे पास आने की जरुरत नहीं। तुमने
इतने लोगों की भलाई करके मेरी दक्षिणा चुका दी है। जो दूसरों के आँसू लेकर उन्हें
मुस्कराहट दे दे- वह सचमुच देवता है। तुम देवता से कम नहीं हो।” राजा का सिर सुबंधु के आगे झुक गया।
बचपन में पढ़ी कहानी 06 - चुरकी - मुरकी
चुरकी- मुरकी
एक गाँव में चुरकी और मुरकी नाम की दो बहनें
रहती थीं। उनका एक भाई था, जो दूसरे गाँव में रहता था।
चुरकी बहुत नम्र और सेवाभाव रखनेवाली थी, जबकि मुरकी बड़ी
घमंडिन थी ।
एक दिन चुरकी का मन अपने भाई से मिलने का हुआ ।
उसने अपने बच्चे मुरकी की देखभाल में रख दिए और भाई के गाँव की ओर निकल पड़ी ।
चलते-चलते उसे एक बेर का पेड़ मिला । बेर के
पेड़ ने चुरकी को पुकारा पूछा; “कहाँ जा रही हो ?”
चुरकी बोली, “भैया के पास।” पेड़ बोला, “मेरा एक काम कर दो। जहाँ तक मेरी छाया
पड़ती है, उतनी जगह को झाड़-बुहारकर लीप- पोंत दो। जब तुम
लौटोगी तो मैं मीठे-मीठे बेर वहाँ टपका दूँगा। तुम अपने बच्चों के लिए ले जाना।”
चुरकी ने यह काम कर दिया और आगे बढ़ी।
चलते-चलते उसे एक गोठान मिला जिसमें सुरही गायें
थी। एक गाय ने चुरकी से पूछा, “कहाँ जा रही हो ?”
चुरकी बोली, "भैया के पास। ” गाय ने कहा, "हमारे इस गोठान को साफ कर दो। लीप
पोत दो। वापिस आते समय एक दोहनी लेती आना। उसे हम दूध से भर देंगी। वह तुम अपने
बच्चों के लिए ले जाना।” चुरकी ने चुटकी बजाते यह कर दिया और
आगे बढ़ी ।
आगे चल कर उसे एक मिट्टी का टीला मिला। उसमें से
आवाज आई,
"क्यों बहन ! कहाँ जा रही हो ?” चुरकी को
बड़ा अचरज हुआ कि यह किसकी आवाज है। वह बोली, "मैं भैया
के पास जा रही हूँ, पर तुम कौन हो ? यहाँ
तो कोई भी दिखाई नहीं देता।" टीला बोला, मैं मिट्टी का
टीला बोल रहा हूँ। तुम मेरे आसपास की जमीन साफ-सुथरी कर दो। वापसी में मैं
तुम्हारी मजदूरी चुकता कर दूंगा।” चुरकी ने फौरन सब कर दिया
और आगे बढ़ी।
अब वह अपने भैया के गाँव पहुँच गई। भैया उसे
गाँव की मेंड पर खेत में ही मिल गया। वह उससे बड़े प्रेम से मिला। उसने सुख-दुख की
बातें की। अपने साथ लाया हुआ कलेवा उसे खिलाया। पर जब भाभी से मिलने घर पहुँची, तो उसका व्यवहार उसके साथ रूखा रहा पर खैर! चुरकी ने दूसरे दिन भाभी- भैया
से विदा ली। उसने भाभी से एक दोहनी माँग ली थी। भैया ने उससे चने का साग तोड़ने के
लिए कहा। उसने तोड़ लिया। उसी को लेकर वह घर की ओर चल पड़ी।
वापस आते हुए सबसे पहले उसे मिट्टी का टीला मिला, जिस पर रूपयों का ढेर लगा था। यह उसकी मजदूरी थी। उसने रुपए बटोर कर अपनी टोकरी
में रख लिए और चने के साग से ढक दिए। थोड़ी देर बाद गोठान आ गया। वहाँ गाय ने उसकी
दोहनी दूध से भर दी। गायों को प्रणाम कर वह आगे चल पड़ी।
फिर उसे बेर का वृक्ष मिला। पेड़ के नीचे पके, मीठे बेरों का ढेर लगा था। कुछ बेर उसने अपने आँचल में बाँधे और पेड़ को
शीश नवाकर आगे बढ़ी।
घर पहुँचने पर मुरकी ने उसके पास जब इतनी चीजें
देखीं तो उसने समझा कि ये सब भैया ने उसे बिदाई के रूप में दी होंगी। उसे लालच हो
आया। उसने सोचा कि उसे भी भैया के यहाँ जाना चाहिए। दूसरे दिन वह भी अपने भाई के
घर के लिए निकल पड़ी।
चलते-चलते उसे भी पहले बेर का वृक्ष मिला। पेड़
ने उससे वही बात कही, जो चुरकी से कही थी, परंतु मुरकी घमंडिन थी। उसने साफ मना कर दिया और आगे बढ़ गई।
आगे बढ़ने पर उसे गोठान मिला। वहाँ की गायों ने
भी उससे सफाई कर देने के लिए कहा। वह उनपर चिढ़ गई। मना करके वह आगे बढ़ गई। आगे
उसे मिट्टी का टीला मिला। टीले ने भी उससे वही बात कही, जो चुरकी से कही थी। मुरकी चिढ़ गई। उसने कहा, "क्या मैं गरीब हूँ. जो मजदूरी लूँगी ? मुझे मेरे भाई
से बहुत रुपए मिल जाएँगे।" इस प्रकार सबका अपमान करके वह आगे बढ़ी।
गाँव की मेंड पर खेत में ही भाई से उसकी भेंट हो
गई। भाई प्रेम से मिला। फिर घर पहुँचकर भाभी से मिली। भाभी का व्यवहार भी ठीक ही
रहा। दूसरे दिन उसने भैया-भाभी से बिदा माँगी। भाभी ने बिदाई कर दी पर भेंट में
कुछ नहीं दिया। खेत में भाई से मिली। भाई ने चने का साग तोड़ने को कहा । थोड़ा-सा
साग लेकर वह चल पड़ी। वह मन ही मन बहुत दुखी हुई कि भैया-भाभी ने चुरकी को तो कितनी
सारी विदाई दी थी, मुझे कुछ नहीं दिया।
लौटते समय रास्ते में पुनः मिट्टी का टीला पड़ा। जैसे ही वह टीले के पास पहुंची तो वहाँ तीन-चार काले सर्प निकले और मुरकी की ओर बढ़े। घबराकर वह भागी। भागते-भागते वह गोठान तक पहुँची। वहाँ आराम करने के लिए थोड़ी देर रुकी तो वहाँ की सुरही गाएँ उसे मारने के लिए दौड़ीं। बेचारी मुरकी वहाँ से भी जान बचाकर भागी। किसी तरह गिरते-पड़ते वह बेर के पेड़ के पास पहुँची तो वहाँ बेर के काँटों का जाल बिछा हुआ था। काँटों से मुरकी के हाथ पैर छिद गए। उसमें उलझकर उसके वस्त्र फट गए।
वह इस तरह घायल होकर थकी माँदी किसी तरह चुरकी
के घर तक पहुँची। चुरकी को उसकी हालत देखकर बहुत कष्ट हुआ। उसने सहानुभूति के साथ
उसकी दयनीय दशा का कारण पूछा। मुरकी ने भैया-भाभी के पक्षपात और उनकी कंजूसी का
दुखड़ा रोया। तब चुरकी ने उसे बताया कि भैया ने तो उसे कुछ नहीं दिया था। उसने यह
भी पूछा,
“रास्ते में तुमसे किसी ने कुछ करने को कहा था क्या ?” इसपर मुरकी ने उसे सारी बातें बताई। चुरकी सब कुछ समझ गई। वह बोली,
“बहन ! तुमको बहुत घमंड था। इसलिए यह हालत हुई। संसार में घमंड किसी
का भी नहीं टिकता। घमंड ही आदमी को नीचे गिराता है। ".
Friday, May 13, 2022
बचपन में पढ़ी कवितायें - संग्रह 01
Thursday, May 12, 2022
बचपन में पढ़ी कहानी 05 - आरुणि की गुरू-भक्ति
Monday, May 9, 2022
बचपन में पढ़ी कहानी 04 - अपना काम आप करो
स्टार कॉमिक्स सीरीज SCS-2 ईदगाह (मुंशी प्रेमचंद)
Sunday, May 8, 2022
बचपन में पढ़ी कहानी 03 - सच्चा सुख
संतोष से बढ़कर कुछ नहीं.